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कविता

पुतला

हरिओम राजोरिया


एक पुतला झूल रहा है फाँसी पर
बहुत दिनों पहले आए थे कुछ लोग
और इसे लटकाकर पीपल से
लौट गए थे अपने-अपने घर

वे दो पुतले लाए थे अपने साथ
एक यह जिसकी गर्दन झूल रही है हवा में
और दूसरा वह जिसे देर तक
वे पीटते रहे थे लात, घूसों और जूतों से
वे तो पिल ही पड़े थे उस पर
छन्ना-छन्ना हो गई थी उसकी देह
फिर छिड़का गया था मिट्टी का तेल
अैर गगन भेदी ''वंदे मातरम्'' के साथ
दहन हुआ था उसका

ऐसे उन्माद से भरे थे वे लोग
कि उनके डरावने नारों से सहमकर
गिरने लगी थीं दुकानों की शटरें
वीरान हो गया था बाजार
तभी पीपल की पवित्र शाख पर रस्सी से
लटकाया गया था दूसरा पुतला
और इसे फाँसी देते हुए चिल्ला रहे थ वे लोगे
''देश के गद्दारो सावधान!
जनता की अदालत में हो रहा है न्याय
देश की अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों को
हम दे रहे हैं सरेआम फाँसी''

फिर वे लोग तो चले गए
लटका रह गया निर्जीव पुतला
पुतला जो बोल नहीं सकता था
पुतला जो नहीं कर सकता था सवाल


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